19-04-84  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

भावुक-आत्मा तथा ज्ञानी-आत्मा के लक्षण

श्रेष्ठ अधिकार को देने वाले, विजयी रत्न बनाने वाले बापदादा बोले:-

आज बापदादा सभी बच्चों को देख रहे हैं कि कौन से बच्चे भावना से बाप के पास पहुँचे हैं, कौन से बच्चे पहचान कर पाने अर्थात् बनने के लिए पहुँचे हैं। दोनों प्रकार के बच्चे बाप के घर में पहुँचे। भावना वाले भावना का फल यथा शक्ति - खुशी, शान्ति, ज्ञान वा प्रेम का फल प्राप्त कर इसी में खुश हो जाते हैं। फिर भी भक्ति की भावना और अब बाप के परिचय से बाप वा परिवार के प्रति भावना इसमें अन्तर है। भक्ति की भावना अन्धश्रद्धा की भावना है। इन्डायरेक्ट मिलने की भावना, अल्पकाल के स्वार्थ की भावना है। वर्तमान समय ज्ञान के आधार पर जो बच्चों की भावना है वह भक्ति मार्ग से अति श्रेष्ठ है। क्योंकि इन्डायरेक्ट देव आत्माओं द्वारा नहीं है - डायरेक्ट बाप के प्रति भावना है, पहचान है लेकिन भावनापूर्वक पहचान और ज्ञान द्वारा पहचान इसमें अन्तर है। ज्ञान द्वारा पहचान अर्थात् बाप जो है जैसा है, मैं भी जो हूँ जैसा हूँ उसे विधिपूर्वक जानना अर्थात् बाप समान बनना। जाना तो सभी ने है लेकिन भावनापूर्वक वा ज्ञान की विधिपूर्वक, इस अन्तर को जानना पड़े। तो आज बापदादा कई बच्चों की भावना देख रहे हैं। भावना द्वारा भी बाप को पहचानने से वर्सा तो प्राप्त कर ही लेते हैं। लेकिन सम्पूर्ण वर्से के अधिकारी और वर्से के अधिकारी यह अन्तर हो जाता है। स्वर्ग का भाग्य वा जीवनमुक्ति का अधिकार भावना वालों को और ज्ञान वालों को - मिलता दोनों को है। सिर्फ पद की प्राप्ति में अन्तर हो जाता है। ‘बाबा’ - शब्द दोनों ही कहते हैं और खुशी से कहते हैं इसलिए बाबा कहने और समझने का फल - वर्से की प्राप्ति तो होनी ही है। जीवनमुक्ति के अधिकार के हकदार तो बन जाते हैं लेकिन अष्ट रत्न, 108 विजयी रत्न, 16 हजार और फिर 9 लाख। कितना अन्तर हो गया! माला 16 हजार की भी है और 108 की भी है। 108 में 8 विशेष भी हैं। माला के मणके तो सभी बनते हैं। कहेंगे तो दोनों को मणके ना! 16 हजार की माला का मणका भी खुशी और फखुर से कहेगा कि मेरा बाबा और मेरा राज्य। राज्य पद में राज्य तख्त के अधिकारी और राज्य घराने के अधिकारी और राज्य घराने के सम्पर्क में आने के अधिकारी, यह अन्तर हो जाता है।

भावुक आत्मायें और ज्ञानी तू आत्मायें - नशा दोनों को रहता है। बहुत अच्छी प्रभु प्रेम की बातें सुनाते हैं। प्रेम स्वरूप में दुनिया की सुधबुध भी भूल जाते हैं। मेरा तो एक बाप इस लगन के गीत भी अच्छे गाते हैं लेकिन शक्ति रूप नहीं होते हैं। खुशी में भी बहुत देखेंगे लेकिन अगर छोटा-सा माया का विघ्न आया तो भावुक आत्मायें घबरायेंगे भी बहुत जल्दी। क्योंकि उनमें ज्ञान की शक्ति कम होती है। अभी-अभी देखेंगे बहुत मौज में बाप के गीत गा रहे हैं और अभी-अभी माया का छोटा-सा वार भी खुशी के गीत के बजाए क्या करूँ, कैसे करूँ, क्या होगा, कैसे होगा! ऐसे क्या-क्या के गीत गाने में भी कम नहीं होते। ज्ञानी तू आत्मायें सदा स्वयं को बाप के साथ रहने वाले मास्टर सर्वशक्तिवान समझने से माया को पार कर लेते हैं। क्या, क्यों के गीत नहीं गाते। भावुक आत्मायें सिर्फ प्रेम की शक्ति से आगे बढ़ते रहते हैं। माया से सामना करने की शक्ति नहीं होती। ज्ञानी तू आत्मा समान बनने के लक्ष्य से सर्व शक्तियों का अनुभव कर सामना कर सकते हैं। अब अपने आप से पूछो कि मैं कौन! भावुक आत्मा हैं या ज्ञानी तू आत्मा हूँ? बाप तो भावना वालों को भी देख खुश होते हैं। मेरा बाबा कहने से अधिकारी तो हो ही गये ना! और अधिकार लेने के भी हकदार हो ही गये। पूरा लेना वा थोड़ा लेना। वह पुरूषार्थ प्रमाण जितना झोली भरने चाहे उतनी भर सकते हैं। क्योंकि मेरा बाबा कहा तो वह चाबी तो लगा ही दी ना। और कोई चाबी नहीं है क्योंकि बापदादा सागर है ना। अखुट है, बेहद है। लेने वाले थक जाते। देने वाला नहीं थकता क्योंकि उसको मेहनत ही क्या करनी पड़ती। दृष्टि दी और अधिकार दिया। मेहनत लेने वालों को भी नहीं है सिर्फ अलबेलेपन के कारण गँवा देते हैं। और फिर अपनी कमज़ोरी के कारण गँवा कर फिर पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। गँवाना - पाना, पाना - गँवाना, इस मेहनत के कारण थक जाते हैं। खबरदार होशियार हैं तो सदा प्राप्ति स्वरूप हैं। जैसे सतयुग में दासियाँ सदा आगे-पीछे सेवा के लिए साथ रहती हैं ऐसे ज्ञानी तू आत्मा बाप समान श्रेष्ठ आत्मा के अब भी सर्व शक्ति, सर्व गुण सेवाधारी के रूप में सदा साथ निभाते हैं। जिस शक्ति का आह्वान करो, जिस भी गुण का आह्वान करो जी हाजर। ऐसे स्वराज्य अधिकारी ही विश्व के राज्य अधिकारी बनते हैं। तो मेहनत तो नहीं लगेगी ना। हर शक्ति, हर गुण सदा विजयी हैं ही, ऐसा अनुभव कराते हैं। जैसे ड्रामा करके दिखाते हो ना। रावण अपने साथियों को ललकार करता और ब्राह्मण आत्मा, स्वराज्य अधिकारी आत्मा अपने शक्तियों और गुणों को ललकार करती। तो ऐसे स्वराज्य अधिकारी बने हो? वा समय पर यह शक्तियाँ कार्य में नहीं ला सकते हो! कमज़ोर राजा का कोई नहीं मानता। राजा को मानना पड़ता प्रजा का। बहादुर राजे सभी को अपने आर्डर से चलाते और राज्य प्राप्त करते हैं। तो सहज को मुश्किल बनाना और फिर थक जाना यह अलबेलेपन की निशानी है। नाम राजा और आर्डर में कोई नहीं! इसको क्या कहा जायेगा? कई कहते हैं ना - मैंने समझा भी कि सहनशक्ति होनी चाहिए लेकिन पीछे याद आया। उस समय सोचते भी सहनशक्ति से कार्य नहीं ले सकते। इसका मतलब बुलाया अभी और आया कल। तो आर्डर में हुआ! हो गया माना अपनी शक्ति आर्डर में नहीं है। सेवाधारी समय पर सेवा न करें तो ऐसे सेवाधारी को क्या कहेंगे? तो सदा स्वराज्य अधिकारी बन सर्व शक्तियों को, गुणों को, स्व-प्रति और सर्व के प्रति सेवा में लगाओ। समझा। सिर्फ भावुक नहीं बनो। शक्तिशाली बनो। अच्छा- वैरायटी प्रकार की आत्माओं का मेला देख खुश हो रहे हो ना! मधुबन वाले कितने मेले देखते हैं। कितने वैरायटी ग्रुप्स आते हैं! बापदादा भी वैरायटी फुलवाड़ी को देख हर्षित होते हैं। भले आये। शिव की बारात का गायन जो है वह देख रहे हो ना! बाबा-बाबा कहते सब चल पड़े तो हैं ना। मधुबन तो पहुँच गये। अब सम्पूर्ण मंजल पर पहुँचना है। अच्छा-

सदा श्रेष्ठ अधिकार को पाने वाले विजयी आत्माओं को, सदा अपने अधिकार से सर्व शक्तियों द्वारा सेवा करने वाले शक्तिशाली आत्माओं को, सदा राज्य तख्त अधिकारी बनने वाले अधिकारी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

अलग-अलग पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकत

पंजाब जोन से:- सभी पंजाब निवासी महावीर हो ना! डरने वाले तो नहीं? किसी भी बात का भय तो नहीं है! सबसे बड़ा भय होता है मृत्यु से। आप सब तो हो ही मरे हुए। मरे हुए को मरने का क्या डर! मृत्यु से डर तब लगता है जब सोचते हैं, अभी यह करना है, यह करें और वह पूर्ति नहीं होती है तो मृत्यु से भय होता है। आप तो सब कार्य पूरा कर एवररेडी हो। यह पुराना चोला छोड़ने के लिए एवररेडी हो ना! इसलिए डर नहीं। और भी जो भयभीत आत्मायें हैं उन्हों को भी शक्तिशली बनाने वाले, दुःख के समय पर सुख देने वाली आत्मायें हो। सुखदाता के बच्चे हो। जैसे अन्धियारे में चिराग होता है तो रोशनी हो जाती है। ऐसे दुःख के वातावरण में सुख देने वाली आप श्रेष्ठ आत्मायें हों। तो सदा यह सुख देन्ो की श्रेष्ठ भावना रहती है। सदा सुख देना है, शान्ति देनी है। शान्तिदाता के बच्चे शान्ति देवा हो। तो शान्ति देवा कौन है? अकेला बाप नहीं, आप सब भी हो। तो शान्ति देने वाले शान्ति देवा - शान्ति देने का कार्य कर रहे हो ना! लोग पूछते हैं - आप लोग क्या सेवा करते हो? तो आप सभी को यही कहो कि इस समय जिस विशेष बात की आवश्यकता है वह कार्य हम कर रहे हैं। अच्छा, कपड़ा भी देंगे, अनाज़ भी दे देंगे, लेकिन सबसे आवश्यक चीज़ हैं - ‘शान्ति’। तो जो सबके लिए आवश्यक चीज़ है वह हम दे रहे हैं। इससे बड़ी सेवा और क्या है! मन शान्त है तो धन भी काम में आता है। मन शान्त नहीं तो धन की शक्ति भी परेशान करती है। अभी ऐसे शान्ति की शक्तिशाली लहर फैलाओ जो सभी अनुभव करें कि सारे देश के अन्दर यह शान्ति का स्थान है। एक-दो से सुने और अनुभव करने के लिए आवें कि दो घड़ी भी जाने से यहाँ बहुत शान्ति मिलती है। ऐसा आवाज़ फैले। जैसे उन्हों का आवाज़ फैल गया है कि अशान्ति का स्थान यह गुरूद्वारा ही बन चुका है। ऐसे शान्ति का कोना कौन-सा है, यही सेवा स्थान है, यह आवाज़ फैलना चाहिए। कितनी भी अशान्त आत्मा हो! जैसे रोगी हास्पिटल में पहुँच जाता है ऐसे यह समझें कि अशान्ति के समय इस शान्ति के स्थान पर ही जाना चाहिए। ऐसी लहर फैलाओ। यह कैसे फैलेगी? इसके लिए एक-दो आत्माओं को भी बुलाकर अनुभव कराओ। एक से एक, एक से एक ऐसे फैलता जायेगा। जो अशान्त हैं उन्हों को खास बुलाकर भी शान्ति का अनुभव कराओ। जो भी सम्पर्क में आयें उन्हों को यह सन्देश दो कि शान्ति का अनुभव करो। पंजाब वालों को विशेष यह सेवा करनी चाहिए। अभी आवाज़ बुलन्द करने का चांस है। अभी भटक रहे हैं। कोई स्थान चाहिए। कौन-सा है वह परिचय नहीं है, ढूँढ रहे हैं। एक ठिकाने से तो भटक गये, समझ गये हैं कि यह ठिकाना नहीं है। ऐसी भटकती हुई आत्माओं को अभी सहज ठिकाना नहीं दे सकते हो? ऐसी सेवा करो। करफ्यू हो कुछ भी हो, सम्पर्क में तो आते हो ना। सम्पर्क वालों को अनुभव कराओ तो ऐसी आत्मायें आवाज़ फैलायेंगी। उन्हें एक दो घण्टा भी योग शिविर कराओ। अगर थोड़ा भी शान्ति का अनुभव किया तो बहुत खुश होंगे, शुक्रिया मानेंगे। जब लक्ष्य होता है कि हमको करना है तो रास्ता भी मिल जाता है। तो ऐसा नाम बाला करके दिखाओ। जितना पंजाब की धरनी सख्त है उतनी नर्म कर सकते हो। अच्छा-

2. सदा अपने को फरिश्ता अर्थात् डबल लाइट अनुभव करते हो? इस संगमयुग का अन्तिम स्वरूप ‘फरिश्ता’ है ना। ब्राह्मण जीवन की प्राप्ति है ही फरिश्ता जीवन! फरिश्ता अर्थात् जिसका कोई देह और देह के सम्बन्ध में रिश्ता नहीं। देह और देह के सम्बन्ध, सबसे रिश्ता समाप्त हुआ या थोड़ा-सा अटका हुआ है? अगर थोड़ी-सी सूक्ष्म लगाव की रस्सी होंगी तो उड़ नहीं सकेंगे। नीचे आ जायेंगे। इसलिए फरिश्ता अर्थात् कोई भी पुराना रिश्ता नहीं। जब जीवन ही नया है तो सब कुछ नया होगा। संकल्प नया, सम्बन्ध नया। आक्यूपेशन नया। सब नया होगा। अभी पुरानी जीवन स्वप्न में भी स्मृति में नहीं आ सकती। अगर थोड़ा भी देह भान में आते तो भी रिश्ता है तब आते हो। अगर रिश्ता नहीं है तो बुद्धि जा नहीं सकती। विश्व की इतनी आत्मायें हैं उन्हों से रिश्ता नहीं तो याद नहीं आती हैं ना। याद वह आते हैं जिससे रिश्ता है। तो देह का भान आना अर्थात् देह का रिश्ता है। अगर देह के साथ जरा-सा लगाव रहा तो उड़ेंगे कैसे! बोझ वाली चीज़ को ऊपर कितना भी फेंको नीचे आ जायेगी। तो फरिश्ता माना हल्का, कोई बोझ नहीं। मरजीवा बनना अर्थात् बोझ से मुक्त होना। अगर थोड़ा भी कुछ रह गया तो जल्दी-जल्दी खत्म करो, नहीं तो जब समय की सीटी बजेगी तो सब उड़ने लगेंगे और बोझ वाले नीचे रह जायेंगे। बोझ वाले - उड़ने वालों को देखने वाले हो जायेंगे।

तो यह चेक करना कि कोई सूक्ष्म रस्सी भी रह तो नहीं गई है। समझा? तो आज का विशेष वरदान याद रखना कि ‘निर्बन्धन फरिश्ता आत्मायें हैं।’ बन्धनमुक्त आत्मायें हैं। ‘फरिश्ता’ - शब्द कभी नहीं भूलना। फरिश्ता समझने से उड़ जायेंगे। वरदाता का वरदान याद रखेंगे तो सदा मालामाल रहेंगे। अच्छा-

3. सदा अपने को शान्ति का सन्देश देने वाले, शान्ति का पैगाम देने वाले सन्देशी समझते हो? ब्राह्मण जीवन का कार्य है - सन्देश देना। कभी इस कार्य को भूलते तो नहीं हो? रोज चेक करो कि मुझ श्रेष्ठ आत्मा का श्रेष्ठ कार्य है वह कहाँ तक किया! कितनों को सन्देश दिया। कितनों को शान्ति का दान दिया। सन्देश देने वाले महादानी-वरदानी आत्मायें हो। कितने टाइटल्स हैं आपके? आज की दुनिया में कितने भी बड़े ते बड़े टाइटल हों आपके आगे सब छोटे हैं। वह टाइटल देने वाली आत्मायें हैं लेकिन अब बाप बच्चों को टाइटल देते हैं। तो अपने भिन्न-भिन्न टाइटल्स को स्मृति में रख उसी खुशी, उसी सेवा में सदा रहो। टाइटल की स्मृति से सेवा स्वत: स्मृति में आयेगी। अच्छा-